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कविता

किसान

प्रताप सोमवंशी


एक

एक ऐसा बकरा
जिसे पूरा सरकारी अमला
काटता खाता
सेहत बनाता है
और वह
दूसरों के लिए
चारा उगाता है
चारा बन जाता है
 
दो

कुनीतियों की डायन|
अपने ही बच्चे खाती है
कभी विदर्भ
कभी बुंदेलखंड से
किसान आत्महत्या की
खबर आती है
डायन मोटी होती जाती है

तीन

एक किसान की मौत का मतलब
मौसम लूट लेता है
मेहनत की फसल
खेत शर्म से मुँह झुकाता है
और जरूरतों का महाजन
रोज तगादा करने आता है

चार

भूख महँगाई मौसम
से लड़ना नियति है
सरकार से लड़ना
साजिश और विद्रोह

पाँच

सिर्फ उनकी आत्महत्याएँ हैं खबर|
तिल-तिलकर मरना
घिसटकर जीना नहीं
गिड़गिड़ाते, हाथ फैलाते
सबको हाकिम बुलाते
ये हमारे अन्नदाता

छह

मेरे देश की धरती सोना उगले
उगले हीरा-मोती
सच है ये गीत
पर इससे डरावना सच
सोना-हीरा-मोती
उगाने वाले
किसान की आत्महत्या है

सात

बारिश
किसानों के खेत खा गई
और सियासत लहलहा उठी

आठ

ये कौन सी पढ़ाई है
जो लान को
समझदार
और खेत को मूरख
बताती है
शर्म आती है
तरस आता है

नौ

वे शहरों का उगला
धुएँ और धूल का
जहर पी रहे हैं
गाँवों के कंठ नीले हो रहे हैं
और देवता होने के रुतबे पर
शहरों का कब्जा है

दस

सिर्फ जमीनों की जरूरत है
तरक्की के लिए
किसानों की नहीं
इसीलिए हुकूमत कह रही है
फल तोड़ लो
पेड़ को
उसके हाल पर छोड़ दो

ग्यारह

हरी भरी जमीनों को देखकर
जीभ शहरों की लपलपाती हैं
गाँव की साँस सूख जाती है 


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